महावीर स्वामी जीवन परिचय महावीर स्वामी की शिक्षा
महावीर स्वामी का जीवन परिचय हिंदी में महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर थे। वे जैन धर्म के प्रवर्तक या संस्थापक नहीं थे। उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों को नवीन दृष्टी से परिवर्द्धित किया और उसके प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया । कुछ विद्वान उन्हें जैन धर्म का सुधारक मानतें हैं। उन्होंने…
महावीर स्वामी का जीवन परिचय हिंदी में
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर थे। वे जैन धर्म के प्रवर्तक या संस्थापक नहीं थे। उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों को नवीन दृष्टी से परिवर्द्धित किया और उसके प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया । कुछ विद्वान उन्हें जैन धर्म का सुधारक मानतें हैं।
उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों को एक नवीन दृष्टि से सुव्यवस्थित एवं परिवर्द्धित किया और उसके प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया इसलिए कुछ विद्वान उन्हें जैन धर्म का सुधारक मानते हैं।
महावीर स्वामी कुल का परिचय
महावीर स्वामी का जन्म 599 ई.पू. (कुछ विद्वानों के अनुसार 540 ई.पू .) मुजफ्फरपुर जिले बिहार केकुंडग्राम नामक स्थान में ज्ञात्रक क्षत्रिय परिवार में हुआ था।
उनके पिता का नाम सिद्धार्थ माता का नाम त्रिशला था जो लिच्छवी वंश की राजा चेटक की बहन थी। महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था।
महावीर स्वामी का संबंध मगध के शासक बिंबसार से भी था जिन्होंने चेटक की पुत्री चेलना से विवाह किया था।
वर्धमान को सभी प्रकार की राजोचित शिक्षा दी गई। युवा होने पर उनका विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ।
इनकी एक पुत्री जिसका नाम प्रियदर्शना था इसका विवाह जामाली नामक क्षत्रिय सरदार से हुआ था।
30 वर्ष की आयु में अपने पिता की मृत्यु के उपरांत वर्धमान नें अपने बड़े भाई नंदिवर्धन से आज्ञा प्राप्त कर गृह त्याग दिया और सन्यास धारण कर लिया।
घर छोड़ने के बाद वर्धमान नें कठोर तपस्या करना शुरू कर दी। वर्धमान ने भिक्षु बनते समय जो कपड़े पहने थे, उनकी कठोर तपस्या में बिल्कुल जर्जर हो गए और फटकर स्वयं शरीर से अलग हो गए।
उसके पश्चात उन्होंने फिर वस्त्रों को धारण नहीं किया उनके नग्न शरीर पर अनेक प्रकार के कीट कीटाणु चढ़ने लगे उन्हें काटने लगे किंतु वर्धमान नें इसकी तनिक भी परवाह नहीं कीलोगों ने उन पर कई तरह के अत्याचार किए किंतुवे शांत और मौन बने रहे।
उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात 13 वें वर्ष में वैशाख मास के दसवें दिन उन्हें ऋमभिकग्राम निकट ऋजूपालिका नदी के तट पर वर्धमान को कैवल्य(ज्ञान)प्राप्त हुआ।
उसके बाद वे केवलिन जिन इंद्रियों को जीतने वाला निर्ग्रंथ सभी बंधनों से मुक्त और महावीर (पराक्रमी )के नाम से पुकारे जाने लगे।
महावीर स्वामी ने ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात अपने धर्म के प्रचार करना शुरू कर दिया 35 वर्ष तक मगध ,काशी कौसल, वैशाली आदि प्रदेशों में जैन धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करते रहे।
उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर अनेक राजा महाराजा और व्यापारी तथा अन्य लोग जैन धर्म के अनुयायी बन गए जैन साहित्य से ज्ञात होता है की मगध की सम्राट बिंबिसार तथा अजातशत्रु लिच्छवी वंश के राजा चेटक, अवंती नरेश चण्डप्रद्योत आदि महावीर स्वामी के अनुयायी थे।
वैशाली तो उनके धर्म प्रचार का प्रमुख केंद्र था 72 वर्ष की आयु में 527 ईसवी पूर्व ( कुछ विद्वानों के अनुसार 468 ई. पू . ) पावापुरी पटना नामक स्थान पर महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ।
महावीर स्वामी की शिक्षा (जैन धर्म की शिक्षाएं )
महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म के सिद्धांतों और नीति शास्त्र को संक्षेप में निम्नानुसार बताया जा सकता है:-
1 निवृत्तिमार्ग –
बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म निवृत्तिमार्गी है। जैन धर्म के अनुसार संसार के समस्त सुख दुख मूलक है मनुष्यों के दुखों का मूल कारण उसकी तृष्णा है वह जीवन तृष्णा से घिरा रहता है।
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य का वास्तविक सुख संसार त्याग में ही निहित है। महावीर स्वामी का कहना था कि मनुष्य को सब कुछ त्याग कर संसार से कोई भी संबंध ना रख कर भिक्षु बन कर जीवन व्यतीत करना चाहिए।
2 जीव और अजीव –
जैन धर्म के अनुसार जीव और अजीव शाश्वत अनादि और अनंत है। इनसे मिलकर ही है जगत बनता है। जीव स्वभावतः का नित्य चेतन पूर्ण व अनंत ज्ञानमय है। जीव चैतन्य द्रव्य और अजीव चैतन्य रहित है। जीव एवं अजीव के संयोग से सृष्टि का क्रम चलता रहता है।
3 आस्त्रव-
जैन दर्शन के अनुसार पुदगल- कणों का जीवन में आस्त्रव( या बहाव )होने से ही व्यक्ति बंधन ग्रस्त होता है। पूर्वजन्म के संस्कार के कारण शरीर बनते हैं, संस्कार के कारण ही पुदगलों का आस्त्रव होता है।पुदगलों का आस्त्रव नष्ट करके ही बंधन से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। पुराने संस्कारों को नष्ट करना और यह प्रेरित करना की पुनः नए संस्कार उत्पन्न ना हो।
4 संवर और निर्जरा –
जैन धर्म के अनुसार किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म फल का नाश करें और इस जन्म में किसी भी प्रकार का कर्म फल संग्रहित ना करें।
नए कर्मों के आगमन की प्रक्रिया को रोकना ही संवर कहलाता है। इस संवर के परिणाम स्वरूप धीरे धीरे संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। पूर्व संचित कर्मों के विनाश की प्रक्रिया को निर्जरा कहते हैं।
5 कर्मवाद –
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य के सारे सुख दुख कर्म के कारण ही हैं। कर्म ही मनुष्य के जन्म मरण का कारण है। प्रत्येक को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है और अपने कर्मों के कारण ही उसे इस संसार में बार-बार जन्म लेना पड़ता है। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना जीव का छुटकारा नहीं हो सकता इस प्रकार कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है।
6 पुनर्जन्म-
जैन धर्म के अनुसार पाप कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य को बार-बार जन्म लेना पड़ता है। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत साथ साथ चलता है जैन धर्म के अनुसार कर्मों के प्रभाव से बचने का कोई उपाय नहीं है। हर कर्म का फल भोगना ही पड़ता है सब प्राणियों को अपने संचित कर्मों के कारण विभिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है
7 निर्वाण-
निर्वाण जैन धर्म का परम लक्ष्य है इसके लिए कर्म फल से मुक्ति आवश्यक है। जैन धर्म के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म फल का नाश करें। आवागमन के बंधन से मुक्त होना और निर्वाण प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है। निर्वाण ऐसी स्थिति है जिसमें पहुंचकर आत्मा निष्क्रिय होकर अनंत काल तक परमानंद का उपभोग करती रहती है। महावीर में कर्म से मुक्ति तथा निर्वाण के साधन बताएं।
8 त्रिरत्न-
त्रिरत्न मनुष्य को निर्वाण की अवस्था तक पहुंचने में मदद दे सकते हैं। कर्म बंधनों का अंत करने के लिए या केवल ज्ञान प्राप्त करने के लिए महावीर स्वामी ने तीन साधन का अनुकरण करने का उपदेश दिया जैन धर्म में उनको त्रिरत्न कहा जाता है जिसका विवरण इस प्रकार है-
1 सम्यक ज्ञान –
सम्यक ज्ञान से तात्पर्य सच्चा और पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना है। यह तीर्थंकरों के उपदेशों के अध्ययन से प्राप्त होता है। सम्यक ज्ञान से सत्य और असत्य का भेद स्पष्ट हो जाता है।
2 सम्यक दर्शन-
सम्यक दर्शन से तात्पर्य है जैन तीर्थंकरों में विश्वास रखना और सत्य के प्रति श्रद्धा रखना जो ज्ञान यथार्थ होता है वही सत्य होता है,और यथार्थ ज्ञान तीर्थंकरों के उपदेशों से ही प्राप्त होता है, इसलिए उनके उपदेशों का अक्षरशः पालन करना चाहिए।
3 सम्यक चरित्र-
सम्यक चरित्र का अर्थ है, इंद्रियों और कर्मों पर पूर्ण नियंत्रण। सब प्रकार के इंद्रिय विषयों में अनासक्त होना उदासीन होना, जीवन में सुख दुख में समभाव रखना सम्यक आचरण है।
सम्यक चरित्र से अभिप्राय है अनासक्त की भावना से नैतिक सदाचार में जीवन व्यतीत करना। सम्यक चरित्र के द्वारा जीव अपने कर्मों से मुक्त हो सकता है, क्योंकि कर्म बंधन दुख का कारण होते हैं।
9 पंच महाव्रत-
नैतिक जीवन बिताने के लिए जैन भिक्षुओं के लिए जैन धर्म में निम्न पांच महाव्रतों पर बल दिया
1अहिंसा-
कर्म से छुटकारा प्राप्त करने के लिए अहिंसा अति आवश्यक है। कर्म के बंधन में पड़ने का सबसे बड़ा कारण हिंसा है, चाहे वह जानकर की जाए या अनजाने। में इसलिए उससे बड़ी सावधानी से बचना चाहिए। जैन धर्म के ग्रहस्थों तथा भिक्षुओं दोनों के लिए ही मांस खाना वर्जित है। कीड़े मकोड़ों को मारना भी पाप माना गया है। महावीर के अनुसार अहिंसा का अर्थ केवल यही नहीं था कि किसी जीवधारी की हत्या ना की जाए,बल्कि किसी की हत्या करने का विचार करना भी पाप है।
2 सत्य-
सत्य बोलना और असत्य का त्याग करना जेनियों का दूसरा महाव्रत है। यदि कोई बात सत्य है परंतु कटु हो तो उसे नहीं बोलना चाहिए। किसी भी विषय पर अच्छी प्रकार विचार किए बिना नहीं बोलना चाहिए। क्रोध अहंकार लोभ के समय भाषण नहीं करना चाहिए। डर से तथा हंसी मजाक में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
3 अस्तेय-
किसी दूसरे की वस्तु को उसकी अनुमति के बिना ग्रहण कर नहीं करना चाहिए। किसी दूसरे की वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा करना भी पाप है। इसका पालन करने के लिए जैन मुनियों को निम्न बातों को ध्यान रखना चाहिए-
- जैन मुनियों को दूसरों के घरों में आज्ञा लेकर ही प्रवेश करना चाहिए।
- भिक्षा में मिले भोजन को गुरु की अनुमति से प्रयोग करना चाहिए।
- किसी के घर में निवास करने की अनुमति प्राप्त करके ही निवास करना चाहिए।
- गृहपति की आज्ञा के बिना घर के किसी भी सामान का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
4 अपरिग्रह-
किसी भी व्यक्ति या वस्तु के साथ आसक्ति ना रखना ही अपरिग्रह कहलाता है। जब तक मनुष्य की आसक्ति सांसारिक वस्तुओं में बनी रहती है तब तक वह कर्म के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकता। संपत्ति का संचय ना करना भी अपरिग्रह व्रत है। इस व्रत के पालन से मनुष्य निर्वाण प्राप्ति के योग्य बनता है।
5 ब्रम्हचर्य-
सभी इंद्रिय विषयों वासनाओं को त्याग कर संयम का जीवन व्यतीत करना ब्रम्हचर्य व्रत कहलाता है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए जैन मुनियों के लिए निम्न व्यवस्था की गई-
- किसी भी स्त्री से वार्तालाप ना किया जाए।
- किसी भी स्त्री की ओर दृष्टिपात ना किया जाए।
- गृहस्थ जीवन के स्त्री संसर्ग के सुख का चिंतन ना करना
- अधिक तथा स्वादिष्ट भोजन का त्याग।
- जिस घर में स्त्री रहती हो वहां पर निवास न किया जाए।
10 पाँच अणुव्रत –
ग्रहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत का विधान है ये पाँच अणुव्रत हैं-
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- अपरिग्रह
- ब्रम्हचर्य
इन पांचों अणुव्रत के मौलिक सिद्धांत पाँच महाव्रत की भाँती हैं ,परंतु ग्रहस्थों के लिए उनकी कठोरता कम कर दी गई है। ब्रह्मचर्य के अंतर्गत वह विवाह कर सकता है तथा अपरिग्रह के अनुसार वह संपत्ति अर्जित कर सकता है परंतु उसे आवश्यकता से अधिक संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए।
11 जैन धर्म- व्यक्ति की स्वतंत्रता –
जैन धर्म के अनुसार मनुष्य अपना मार्ग चुनने के लिए स्वतंत्र है। मनुष्य अपने कर्म के अधीन है। वह स्वयं अपने भाग्य का विधाता है।
महावीर स्वामी ने धर्म में स्त्रियों को स्वतंत्रता दी, उनका विचार था कि स्त्रियां भी निर्वाण प्राप्त कर सकती हैं। उन्होंने स्त्रियों के लिए जैन धर्म के द्वार खोल दिए। इसके परिणामस्वरूप जैन धर्म में कई स्त्रियां दीक्षित हुई और उनमें से कई विदुषी भी हुई।
12 नैतिकता तथा सदाचारमय जीवन –
महावीर स्वामी ने धार्मिक क्रियाकलापों और कर्मकांडों को निरर्थक बताया और विशुद्ध नैतिक आचरण पर अधिक बल दिया। वह सांसारिक विषय वासनाओं के प्रति राग भाव का उन्मूलन करने का उपदेश देते हैं।
व्यक्ति नैतिक व सदाचारमय जीवन के द्वारा ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। उपरोक्त महावीर दर्शन के प्रमुख आयाम हैं,जो व्यक्ति को नैतिक जीवन जीने में सहायता तथा मार्गदर्शन उपलब्ध कराते हैं।
13 स्यादवाद-
जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण विद्यमान रहते हैं इन सभी गुणों को जानना सांसारिक जीवो के लिए संभव नहीं है। केवल मुक्त जीव ही किसी वस्तु के सभी गुणों को जान सकता है।
यही कारण होता है कि साधारण व्यक्ति के निर्णय आंशिक रूप से ही सत्य होते हैं,न कि पूर्ण रूप से, आंशिक ज्ञान विवाद का कारण होता है। इस विवाद के निराकरण के लिए जैन दर्शन में स्यादवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।
स्यादवाद का एक ज्ञान शास्त्रीय सिद्धांत है। जिसके अनुसार व्यक्ति के निर्णय या परामर्श आंशिक रूप से सत्य होते हैं। जैसे कि 6 अंधों और एक हाथी, जिस प्रकार प्रत्येक अंधा अपने अनुसार हाथी के हर हिस्से को स्पर्श कर अनुमान लगाता है वह उसका पूर्ण ज्ञान होता है।
लेकिन यह ज्ञान पूर्ण नहीं होता विवादों से बचने के लिए जैन दर्शन प्रत्येक निर्णय के आरंभ में स्याद शब्द जोड़ देने की सलाह देते हैं। इस आंशिक ज्ञान को जैन दर्शन में नय कहा जाता है जैन धर्म में सात प्रकार के नयों का समावेश किया गया है इसके लिए सप्तभंगी नय सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है।
जैन दर्शन में किसी भी वस्तु के बारे में निर्णय देने के सात दृष्टिकोण बनाए गए हैं इसी को सप्त भंगी नए कहते हैं
एक समय में वस्तु है
एक समय में वस्तु नहीं है
एक समय में वस्तु है भी और नहीं भी है
कुछ कहा नहीं जा सकता
वस्तु है और कुछ कहा नहीं जा सकता
वस्तु नहीं है और कुछ कहा नहीं जा सकता
वस्तु है भी ,नहीं भी और कुछ कहा भी नहीं जा सकता
जैन दर्शन की आलोचना यह कहकर की जाती है की सप्त भंगी नय पागलों का प्रलाप है किसी भी वस्तु की दो स्थिति होती है- वस्तु है या नहीं है
14 अनीश्वरवाद –
भारतीय दर्शन में सामान्यतः ईश्वर के विचार को प्राथमिकता प्रदान की गई है।
सनातन धर्म से लेकर वर्तमान तक ईश्वर की महिमा का व्यापक वर्णन किया गया है।
लेकिन जैन धर्म और बौद्ध धर्म में ईश्वर को नकार के एक नवीन विवाद को जन्म दिया है।
यह दोनों धर्म ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं, और इनका मानना है कि अगर जगत में ईश्वर है तो जगत में नाना प्रकार का दुख क्यों है। जिसके परिणाम स्वरूप अनईश्वरवादी विचारधारा का जन्म देखने को मिलता है।
अनईश्वरवादी से आशय है कि वेदों की सत्ता को नकार देना क्योंकि ईश्वर वादी विचारधारा का मानना है कि वेदों की रचना ईश्वर ने की है।
अनईश्वरवाद का मानना है कि वेदों की रचना अगर ईश्वर ने की है तो वेदों में बलि कर्मकांडों स्वार्थ का समावेश क्यों है, क्या ईश्वर स्वार्थी है आदि तत्वों के आधार पर अनईश्वर का जन्म देखने को मिलता है।
15 आत्मवाद-
भारतीय दर्शन में चार्वाक एवं बौद्ध को छोड़कर संपूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा की सत्ता में अखंड विश्वास रखता है यहां आत्मा को शरीर से भिन्न एक अध्यात्मिक सत्ता कहा गया है। यह नित्य एवं अविनाशी है।
शंकर ने आत्मज्ञान को ही ब्रह्म ज्ञान माना है। इस प्रकार प्राय संपूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा को नित्य अविनाशी आध्यात्मिक सत्ता के रूप में स्वीकार करता है। जैसे कि उपनिषद एवं वेदों में आत्मा की सत्ता पर अधिक बल दिया है।
आत्मा के स्वरूप को लेकर भारतीय दर्शन में कई विचारधाराओं का समावेश देखने को मिलता है। चार्वाक चेतन शरीर को आत्मा, बौद्ध आत्मा को चेतना का प्रवाह जबकि शंकर नें आत्मा को सच्चिदानंद अर्थात सत चित् आनंद कहां है।
शंकर के अनुसार आत्मा संख्या में एक है इसका स्वरूप अलग अलग देखने को मिलता है अतः भारतीय दर्शन आत्मावादी दर्शन देखने को मिलता है।
१६ तपस्या और उपवास पर बल देना-
महावीर स्वामी ने आत्मा की शुद्धि के लिए तपस्या और उपवास पर बल दिया। जब तक मनुष्य कठोर तपस्या एवं उपवास द्वारा विषय वासनाओं का अंत नहीं कर देता तब तक उसे निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता। अतः जैन धर्म में उपवास एवं कठोर तपस्या पर अत्यधिक बल दिया गया है । तपस्या के अंतर्गत व्रत,अन्न त्याग, कष्ट सहन करना, स्वाध्याय आदि सम्मिलित हैं।
१७ जैन धर्म के 10 लक्षण-
जैन धर्म के अनुसार 10 लक्षण बताए गए हैं जो निम्नलिखित हैं-
- उत्तम क्षमा
- उत्तम मार्दव
- उत्तम आर्जव
- उत्तम सत्य
- उत्तम शौच
- उत्तम संयम
- उत्तम तप
- उत्तम त्याग
- उत्तम अकिंचन
- उत्तम ब्रह्मचर्य
18 पापों से दूर रहना-
जैन धर्म में 18 प्रमुख पाप बताए गए हैं यह 18 पाप है हिंसा ,झूठ, चोरी, मैथुन,परिग्रह, क्रोध, मान, माया लोभ, राग द्वेष, दोषारोपण, चुगली, असमय रति, निंदा, छल कपट,मिथ्या दर्शन, जैन धर्म के अनुसार मनुष्य को इन 18 पापों से दूर रहना चाहिए इन पापों का नाश किए बिना मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।
19 जाति प्रथा का विरोध-
जैन धर्म का जाति प्रथा तथा ऊंच-नीच के भेदभाव में कोई विश्वास नहीं है। महावीर स्वामी ने जाति प्रथा का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया.
उन्होंने निर्वाण का द्वार सभी जातियों के लिए खोल दिया था उनका कहना था कि मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
अनेकांतवाद-
अनेकांतवाद वस्तु और स्यादवाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है।
जहां से स्यादवाद ज्ञान मीमांसा से संबंध रखता है वही अनेकांतवाद तत्व मीमांसा से।
अनेकांतवाद के अनुसार इस जगत में अनेक वस्तुएं हैं और उनके गुण धर्म तत्व हैं।
जैन दर्शन मानता है कि मनुष्य पक्षियों पेड़ और पौधों में ही चेतना या जीव नहीं होता बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे जड़ पदार्थों में भी जीव रहते हैं।
अनेकांतवाद कहता है कि वस्तु के अनेक गुण और धर्म होते हैं वस्तु के अनेक धर्म आते जाते रहते हैं अर्थात पदार्थ उत्पन्न और विशिष्ट होता रहता है।
महावीर नीति के नकारात्मक पहलू
महावीर के दर्शन की बड़ी समस्या यह है कि वे अत्यंत कठोर मार्ग प्रस्तावित करते हैं। साधुओं के लिए तो यह मार्ग और भी कठिन है जिसे वे महाव्रत कहते हैं।
ग्रहस्थों के लिए अनुशासन की अपेक्षा अपेक्षाकृत कम है जिसे अनुव्रत कहा जाता है पर दोनों ही मार्ग ऐसे हैं, कि यदि सामान्य व्यक्ति उस पर सौ फ़ीसदी चलने की कोशिश करें तो वह सांसारिक जीवन के प्रति सहज नहीं रह पाएगा।
उदाहरण के लिए महावीर की अहिंसा की अवधारणा काफी हद तक का अव्यवाहारिक है उन्होंने अपने अनुयायियों को यहां तक की सलाह दी है कि वे कृषि कार्य से बचें क्योंकि कृषि कार्य में छोटे छोटे जीव जंतुओं की मृत्यु हो जाती है। ऐसे में प्रश्न यह है कि अगर मांसाहार की तरह कृषि कार्य भी अनैतिक है तो व्यक्ति क्या खाकर जिंदा रहेगा।
संभवत महावीर यह कहना चाहते हैं कि उनके अनुयाई स्वयं कृषि ना करें किंतु वह दूसरों के द्वारा उत्पन्न अन्न का उपयोग कर सकते हैं अगर उनका यह दृष्टिकोण था तो इससे नैतिकता की समस्या का समाधान नहीं होता है।
महावीर की कठोर ब्रह्मचर्य की धारणा भी कई विवादों को आमंत्रित करती है। पश्चिमी देशों में जहां ब्रम्हचर्य का विचार सुना भी नहीं जाता वहां के नागरिकों की मानसिक शारीरिक स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा भारत के उन साधुओं से कम नहीं जो ब्रह्मचर्य को अच्छे स्वास्थ्य का मार्ग बताते हैं
यदि सचमुच यौन जीवन बुरा होता तो प्रकृति प्राणी मात्र के भीतर यौन इच्छाएं क्यों पैदा करती गैर तलब है की चार्वाक दर्शन के अनुसार महावीर की विचारों पर ऐसा गंभीर आक्षेप करते हुए कहा था कि वह मनुष्य को उसकी प्रकृति से काट देना चाहते हैं।
एक समस्या यह भी है की महावीर एक तरफ स्यादवाद की बात करते हैं जबकि दूसरी तरफ कुछ नैतिक नियम बताते हैं। यदि हर चीज सापेक्ष रूप से सत्य है तो जैन परंपरा की नैतिक संहिता सभी के लिए क्यों मानी जानी चाहिए ?
महावीर नीति के सकारात्मक पहलू –
अहिंसा का मूल्य अत्यंत व्यावहारिक है बीसवीं शताब्दी में आतंकवाद व जेनोसाइड जिस तरह से बड़े हैं उसका समाधान अहिंसा से ही संभव है।
वर्तमान में पर्यावरण संकट और पशु अधिकार की मुद्दे को देखते हुए अहिंसा का मूल्य प्रासंगिक है। वितरण मूलक न्याय सुनिश्चित करने के लिए अपरिग्रह का मूल्य प्रासंगिक है।
अगर अमीर लोग धन संचय से बचेंगे तो अपरिग्रह की भावना वंचित वर्गों के कल्याण में सहायक होगी।
अस्तेय का अर्थ अगर व्यापक रूप से में लें तो हमें किसी का भी अधिकार नहीं छीना चाहिए। यह सिद्धांत मनुष्य- पशु संबंध, मानव- मानव संबंध तथा अंतरराष्ट्रीय नैतिकता में आधारभूत महत्व रखता है।
आतंकवाद नक्सलवाद, क्षेत्रवाद के मूल में यही कारण होता है कुछ व्यक्तियों ने बाकी व्यक्तियों का हक छीन लिया है।
जैनों की ज्ञान मीमांसा का प्रमुख सिद्धांत स्यादवाद है जिसका अर्थ है सामान्य मनुष्यों का ज्ञान हमेशा एक विशेष दृष्टिकोण के सापेक्ष होता है।
विभिन्न व्यक्तियों या विचारों में झगड़ा तभी होता है जब वे अपने सापेक्ष ज्ञान को निरपेक्ष मान लेने की भूल करते हैं।
अगर वह समझ जाए कि उनका ज्ञान सापेक्ष है और दूसरों का ज्ञान भी उनके अपने दृष्टिकोण से उचित है तो एक दूसरे के दृष्टिकोण के प्रति ना केवल सहिष्णु हो जाएंगे बल्कि उनका सम्मान भी करेंगे। उनके बीच चर्चा की संस्कृति विकसित होगी जो वैचारिक लोकतंत्र का मूल आधार है।